Saturday, September 19, 2009

Panch-Tantra

तंग होती दुनिया 

जहाँ मेहमान भगवन बनके आता,
था हरएक का हरएक से कोई नाता,
जहाँ ,दिन रात होती थी दिवाली,
अंधेरे में ये अब क्यों खो गई है,
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

नई रस्मों की है अब वाह - वाही,
लगी है बनने माँ  अब बिन ब्याही,
सफेदी को है खा बैठी स्याही,
बदरवा बिन भी रैना हो गई है
बहुत छोटी ये दुनिया हो गयी है.

फिज़ाओं में चमक थी रौशनी थी,
हवाओं में भी कैसी ताज़गी थी,
अमावस में चंदरमा खो गया है,
खिजाओं से क्या यारी हो गई है,
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

बदलती जा रही है चाल देखो,
लपेटे है शनि का जाल देखो,
गुरु लगता है अब पामाल देखो,
कभी केतु तो राहू से ठनी है,
बहुत छोटी ये दुनिया हो गयी है.

नगद, चीजों का बिकना रुक गया है,
चलन में जाली रुपया जुट गया है,
हमारा सब्र भी अब खुट गया है,
उधारी ही उधारी हो गई है.
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

परिंदों ने कमी की फासलों में ,
चरिंदे भी रुके है रास्तो में,
सितारे छुप गए है बादलो में ,
हवा भी लगती, जैसे थम गई है,
बहुत छोटी ये दुनिया हो गयी है.

शहर में हर कोई बीमार क्यों है,
मसीहा भी दिखे लाचार क्यों है,
रसायन भी बने हथियार क्यों है,
उलट गिनती शुरू क्या हो गई है?
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

खुलेगा पंचतंत्रों का गठन क्या?
छुटेगा पंच तत्वों का मिलन क्या?
गिरेगा इस धरा पर ये गगन क्या?
सितारों की यही तो आगही है!
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

-मंसूर अली हाशमी

4 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

शहर में हर कोई बीमार क्यों है,
मसीहा भी दिखे लाचार क्यों है,
रसायन भी बने हथियार क्यों है,
उलट गिनती शुरू क्या हो गई है?
बहुत छोटी ये दुनिया हो गई है.

वाह ! बहुत सुन्दर अली साहब, बहुत बढिया कविता ! सोचता हूँ कि ऐ काश ! हर इंसान इसी लाइन पर सोचने लगता !

दिनेशराय द्विवेदी said...

अच्छी नज्म है। बहुत सवाल उठाती है समाज और राज पर।

Udan Tashtari said...

एक उम्दा रचना.

समयचक्र said...

सुन्दर प्रस्तुति . धन्यवाद . ईद और नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनाये