Wednesday, February 8, 2012

'Rose Day' पर 'काँटा' लगा !


'Rose Day'  पर 'काँटा' लगा !


'सामग्री' व्यस्को ही की, हम देख रहे थे !
'कुर्सी' न ही 'माईक' कहीं हम फेंक रहे थे,
'कर-नाटकी' माहौल में रोमांस बड़ा है, 
दिल में न था कुछ मैल, 'नयन' सेंक रहे थे,

मालूम न था हम को कि होवेगी फजीहत,
दोहराएंगे अब हम नहीं, 'मोबाइली' हरकत,
'सो' लेते तो होती न 'ख़राब' अपनी तबियत,
बच जाए अगर 'कुर्सी' तो होवेगी गनीमत.

हम सोच रहे थे कि सुरक्षित है, जगह ये,
कानूनों के 'ऊपर' ही तो रहती है जगह ये,
'आयुक्त' या 'अन्ना' की दख़ल होगी नही याँ,
महँगी पड़ी 'बाबाजी' बड़ी हमको  जगह ये. 

'दिन वेंलेंटाईन' का अब फीका ही रहेगा,
चिंता ये नहीं है कि ज़माना क्या कहेगा,
बदनाम ये मीडिया तो हमें बहुत करेगा,
पर अगले 'इलेक्शन' तक ये किसे याद रहेगा ?

Note: {Pictures have been used for educational and non profit activies. 
If any copyright is violated, kindly inform and we will promptly remove the picture.}
mansoor ali hashmi 

7 comments:

विष्णु बैरागी said...

ओह! हाशमी साहब! आपने तो जान निकाल दी। बेबस, बेचारों के मन की बात कह दी। वकील भी क्‍या पैरवी करेगा? यदि मैं अखबार निकाल रहा होता तो कल के अंक में इसे मुख पृष्‍ठ पर छापता।

दिनेशराय द्विवेदी said...

हाशमी साहब, कमाल है। हम अभी तो बात ही कर रहे थे। याँ कविताई भी हाजिर है आप की।

Udan Tashtari said...

haa haa :)

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बढिया है।

ghughutibasuti said...

सही कह रहे हैं आप.शांतिपूर्वक बैठे वे अपना मनोरंजन कर रहे थे. हंगामा व तोड़ फोड़ भी नहीं कर रहे थे.
घुघूतीबासूती

Gyan Dutt Pandey said...

बड़ी जालिम है ये दुनियां! मोबाइल के साथ भी चैन से नहीं रहने देती! :-)

कुमार राधारमण said...

बड़ी जालिम है मीडिया। दूरदर्शन के ज़माने में इतनी राहत तो थी!